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आधुनिकता की दौड़ में फीका पड़ा होली का रंग

 आधुनिकता की दौड़ में फीका पड़ा होली का रंग

नही रहा गुब्बारे और पिचकारियों वाला बचपन,मोबाइल फोन्स ने छीन  लिया बचपन 

होली पर अधिकांश लोग का टूरिस्ट और धार्मिक स्थलों पर जाने का प्रचलन बढ़ा

होली मिलन कार्यक्रमों तक ना सिमट जाए रंगो का पर्व

रिर्पोट-अमित मोनू यादव

सहारनपुर-होली का पर्व सनातन मान्यता में अपना एक अलग महत्व,एक अलग रुतबा रखता है। होली को लेकर सनातन सभ्यता में कई तरह के उल्लेख और प्रमाण दिए हुए है।होली पर्व ऋतु परिवर्तन यानी शरद से ग्रीष्म ऋतु के आगमन का भी संदेश देता है।

लेकिन आधुनिकता की दौड़ में होली का यह पर्व महज औपचारिकता बन कर रह गया है लोग होली के दिन ही एक दूसरे को गुलाल लगा कर ही रस्म अदायगी निभा रहे है। होली खेलने वाला उमंग और उत्साह लगातार कम होता जा रहा है।पहले जहा होली से कई दिनों पहले बड़े और बच्चों में होली का खुमार सिर चढ़ कर बोलता था।मगर आधुनिकता के दौर में बच्चे का हाथों में पानी के गुबारे और रंग गुलाल लिए और एक दुसरे को रंगने की होड़ भी अब धीरे धीरे खत्म सी हो रही है क्योंकि अब न वो वो रंग रहा ना वो बच्चे रहे और ना वो बचपन रहा। बच्चो के हाथो में रंगो और गुलाल की जगह अब मोबाइल फोन्स और कंप्यूटर ने ले ली है।वही बसंत पंचमी से शुरू होने वाले इस पर्व पर अब लोकगीतों को गाने वाले और सुनने वाले भी शायद नहीं रहे है। डीजे के शोर ने इस प्राचीन परंपरा को दबा दिया है। देखा जाए तो होली का पर्व अब सिर्फ सामाजिक संस्थाओं द्वारा होली मिलन के रूप में बैंक्वेट हॉल्स में फूलो की होली,माथे पर छोटा टीका और जलपान तक ही सिमट कर रह गया है ।बीते समय में होली पर दुश्मन को रंग लगा फिर दोस्त बना लेने वाली पीढ़िया और परंपरा दोनो आधुनिक युग की भेट चढ़ गई है।

रंग गुलाल और पिचकारियों की दुकानों पर नहीं ग्राहकों की भीड़

पहले के दौर में जहा होली से एक पखवाड़ा पहले बाजार खरीदारों से गुलजार हो जाया करते थे वो बाजार होली से पहले रंग गुलाल और पिचकारियों से पूरी तरह सज तो चुका पर होली के महज चंद दिन पहले ग्राहकों के इंतजार में पूरी तरह गुलजार नही हो पाये है।होली का सामान बेचने वाले दुकानदारों का कहना है कि अब होली पर पहले जैसा माहौल देखने को नहीं मिलता है। त्यौहार से एक या दो दिन पहले ही खरीदारी होती है।उनका कहना है कि होली से एक या दो दिन पहले ही बाजारों में रौनक लौटने की उम्मीद है।

विलुप्त हो गई है फूलो के रंग के साथ खेली जाने वाली होली

समाजसेवी विपिन जैन और अनिल दास का कहना है कि बीते दशक पहले फूलों से रंग बनाकर होली खेली जाती थी, इन रंगों का औषधीय महत्व भी था, लेकिन अब पेड़ों पर लगे फूल बुजुर्गों की यादों तक सीमित रह गए हैं। बुजुर्ग बताते हैं कि फूलों से रंग बनाने में मेहनत लगती थी। लेकिन अब वह रंग और परंपरा दोनो लुप्त  हो गई।

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